बच्चों के लिए तेनालीराम की 10 मज़ेदार और शिक्षाप्रद कहानियाँ

तेनालीराम के 10 सबसे प्रसिद्ध किस्से | Top 10 Tenali Rama Stories in Hindi


तेनालीराम, जिन्हें तेनाली रामा या विकटकवि भी कहा जाता है, दक्षिण भारत के प्रसिद्ध राजा कृष्णदेव राय के दरबार के एक अत्यंत बुद्धिमान और चतुर दरबारी थे। उनकी कहानियाँ आज भी बच्चों और बड़ों को हँसी, चतुराई और नैतिकता का अद्भुत मिश्रण सिखाती हैं।
इन कहानियों में तेनालीराम अपनी तेज़ बुद्धि और हास्य से न केवल दरबारियों को हराते हैं, बल्कि राजा को भी प्रभावित करते हैं। चाहे कोई चोर हो, झूठा व्यापारी, या घमंडी दरबारी — Tenaliram ki Kahaniya सभी को अपनी सूझबूझ से सबक सिखाते हैं।

तेनालीराम की कहानियाँ – चतुराई और हँसी से भरी कहानियों की दुनिया

Tenali ram ki kahaniya:

  • सरल भाषा में होती हैं
  • मनोरंजक होती हैं
  • और हर कहानी में छुपी होती है एक जीवन की सीख

Tenaliram ki Kahaniya से क्या सीखते हैं बच्चे?

  • चतुराई से समस्याओं को हल करना
  • ईमानदारी और सच्चाई का महत्व
  • गलत के खिलाफ खड़े होना
  • विनम्रता और बुद्धि की शक्ति
 Tenaliram ki kahaniya आज भी शिक्षा, मनोरंजन, और संस्कार के लिए बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।

#1.Tenaliram ki kahaniya : तेनालीराम और मूर्ख चोर

Tenaliram ki Kahaniya


विजयनगर राज्य में तेनालीराम अपनी बुद्धिमानी और हाजिरजवाबी के लिए दूर-दूर तक मशहूर थे। उनकी चतुराई के किस्से जितने राजा कृष्णदेवराय को पसंद थे, उतने ही चोर-उचक्कों में खौफ पैदा करते थे।

एक रात तेनालीराम को अपने घर के बाहर कुछ सरसराहट सुनाई दी। उन्होंने खिड़की से झाँककर देखा तो पाया कि दो चोर घनी झाड़ियों में छिपे हुए हैं और उनके घर में चोरी करने का मौका ढूंढ रहे हैं। तेनालीराम घबराए नहीं, बल्कि उन्होंने उन चोरों को सबक सिखाने की एक मज़ेदार योजना बनाई।

वह अपनी पत्नी के पास गए और जानबूझकर ऊँची आवाज़ में बोले, "सुनती हो! शहर में चोरों का आतंक बहुत बढ़ गया है। मैंने अपनी सारी जमा-पूँजी, यानी सोने के सिक्कों और गहनों को एक बड़े से संदूक में रख दिया है। मुझे डर है कि चोर उसे चुरा ले जाएँगे।"

उनकी पत्नी ने पूछा, "तो अब हम क्या करेंगे? उसे कहाँ छिपाएँ?"

तेनालीराम और भी ज़ोर से बोले, "मैंने एक तरकीब सोची है। घर में तो कोई जगह सुरक्षित नहीं है। सबसे अच्छी जगह घर के पीछे वाला कुआँ है। हम उस भारी संदूक को कुएँ में डाल देते हैं। चोर कभी सोच भी नहीं पाएँगे कि खज़ाना कुएँ के अंदर हो सकता है।"

झाड़ियों में छिपे चोरों ने जब यह सुना, तो वे मन ही मन बहुत खुश हुए। वे एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराए और सोचने लगे कि तेनालीराम को मूर्ख बनाना कितना आसान है।

जैसे ही तेनालीराम और उनकी पत्नी ने एक भारी संदूक (जो पत्थरों से भरा था) को कुएँ में फेंकने का नाटक किया और घर के अंदर चले गए, चोरों की खुशी का ठिकाना न रहा। वे तुरंत झाड़ियों से बाहर निकले और कुएँ के पास पहुँचे।

एक चोर ने दूसरे से कहा, "खज़ाना तो हाथ लग गया, पर इसे निकालने के लिए कुएँ का सारा पानी बाहर निकालना होगा।"

फिर क्या था! दोनों चोर काम पर लग गए। एक चोर बाल्टी से पानी खींचता और दूसरा उसे पास के बगीचे में डालता जाता। वे पूरी रात मेहनत करते रहे। सुबह की पहली किरण निकलने तक उन्होंने कुएँ का सारा पानी निकाल दिया था, लेकिन उन्हें अंदर कोई संदूक नहीं मिला। वे पसीने से लथपथ और बुरी तरह थक चुके थे।

तभी तेनालीराम अपने घर से बाहर निकले और चोरों को देखकर बोले, "अरे भाइयो, आप लोगों का बहुत-बहुत धन्यवाद! मैं कई दिनों से अपने सूखे पड़े बगीचे में पानी देना चाह रहा था, पर आलस के कारण यह काम नहीं कर पा रहा था। आप लोगों ने रात भर मेहनत करके मेरा काम आसान कर दिया। अब मेरा पूरा बगीचा लहलहा उठेगा।"

यह सुनते ही चोरों का चेहरा शर्म से लाल हो गया। वे समझ गए कि तेनालीराम ने उन्हें बेवकूफ बनाया है। वे अपनी जान बचाकर वहाँ से ऐसे भागे कि फिर कभी उस गाँव में दिखाई नहीं दिए।


सीख: इस कहानी से यह सीख मिलती है कि शारीरिक बल या बुरी नियत से ज़्यादा शक्तिशाली बुद्धि और चतुराई होती है। किसी भी समस्या का समाधान घबराने से नहीं, बल्कि शांति और समझदारी से सोचने में है।


#2.Tenaliram ki kahaniya :राजा को दी सच्ची सलाह

Tenaliram ki Kahaniya



विजयनगर के महाराजा कृष्णदेवराय एक न्यायप्रिय और प्रजापालक शासक थे, लेकिन कभी-कभी उन्हें क्रोध बहुत शीघ्र आ जाता था। दरबार में सभी मंत्री और दरबारी उनके गुस्से से डरते थे और उनके सामने सच बोलने की हिम्मत नहीं करते थे। सिवाय एक व्यक्ति के - और वह थे तेनालीराम, जो अपनी चतुराई से कड़वी सच्चाई भी मीठे तरीके से प्रस्तुत कर देते थे।

एक दिन किसी बात पर महाराजा अपनी वृद्ध माँ, राजमाता से अप्रसन्न हो गए। बात इतनी बढ़ गई कि क्रोध में आकर राजा ने एक भयानक आदेश दे दिया। उन्होंने हुक्म सुनाया कि राजमाता को महल के एकांत कारावास में डाल दिया जाए और उन्हें कोई एक बूँद पानी भी न दे।

राजा का यह कठोर निर्णय सुनकर पूरा दरबार सन्न रह गया। सभी जानते थे कि राजा का यह निर्णय गलत है और शांत होने पर उन्हें इसका बहुत पछतावा होगा। लेकिन किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह राजा को उनकी गलती का एहसास करा सके।

जब यह बात तेनालीराम को पता चली, तो वह समझ गए कि राजा से सीधे तौर पर कुछ भी कहना आग में घी डालने जैसा होगा। उन्होंने राजा को उनकी गलती का एहसास कराने के लिए एक अनोखी तरकीब सोची।

अगले कुछ दिनों तक तेनालीराम दरबार से गायब रहे। इस बीच, उन्होंने गुप्त रूप से राजमाता के लिए भोजन और पानी की व्यवस्था करवा दी ताकि राजा का क्रोध शांत होने तक वह सुरक्षित रहें।

कुछ दिनों बाद, जब राजा अपने बगीचे में टहल रहे थे, तो उन्होंने एक अजीब दृश्य देखा। तेनालीराम एक पेड़ की टहनियों और पत्तों पर पानी डाल रहे थे। राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ।

वे तेनालीराम के पास गए और कड़ककर बोले, "तेनाली! यह क्या मूर्खता है? क्या तुम पागल हो गए हो? पेड़ को हरा-भरा रखने के लिए पानी उसकी जड़ों में डाला जाता है, पत्तियों और टहनियों पर नहीं! तुम्हारी बुद्धि को क्या हो गया है?"

तेनालीराम ने बड़ी मासूमियत और दुख के साथ उत्तर दिया, "महाराज, मैं कोई मूर्खता नहीं कर रहा हूँ। मैं तो बस आपके ही दिखाए रास्ते पर चल रहा हूँ।"

राजा हैरान होकर बोले, "हमारे दिखाए रास्ते पर? इसका क्या मतलब है?"

तेनालीराम ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, इस पेड़ की जड़ें तो धरती के नीचे हैं, जो इसे जीवन देती हैं। ठीक उसी तरह हमारी 'जड़' हमारे माता-पिता होते हैं, जो हमें जन्म देते हैं और हमारा पालन-पोषण करते हैं। जब आप स्वयं अपनी 'जड़', यानी अपनी जन्म देने वाली माँ को भूल सकते हैं और उन्हें पानी की एक-एक बूँद के लिए तरसा सकते हैं, तो मैं एक साधारण दरबारी होकर यह कैसे याद रखूँ कि पेड़ को पत्तों से नहीं, बल्कि जड़ों से सींचना चाहिए?"

तेनालीराम के शब्द तीर की तरह राजा के दिल में जा लगे। उनकी आँखों से क्रोध का पर्दा हट गया और उन्हें अपनी भयानक गलती का एहसास हुआ। उनकी आँखें पश्चाताप के आँसुओं से भर गईं। उन्हें शर्मिंदगी महसूस हुई कि गुस्से में आकर वह अपनी माँ के प्रति इतने निर्दयी हो गए थे।

उन्होंने तुरंत अपने सैनिकों को आदेश दिया कि राजमाता को पूरे सम्मान के साथ मुक्त किया जाए। वह स्वयं अपनी माँ के पास गए, उनके चरणों में गिरकर क्षमा माँगी और उन्हें वापस राजमहल ले आए।

राजा ने तेनालीराम को गले लगा लिया और कहा, "तेनाली, आज तुमने मुझे सिर्फ एक पेड़ को सींचने का सही तरीका ही नहीं, बल्कि जीवन जीने का सही मार्ग भी दिखाया है। सच्चा सलाहकार वही होता है जो राजा को उसकी गलती का एहसास कराए। तुम ही मेरे सच्चे मित्र और गुरु हो।"


सीख: क्रोध में लिया गया निर्णय हमेशा विनाशकारी होता है। हमें हमेशा अपने माता-पिता और बड़ों का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि वही हमारी जीवन की जड़ें हैं।

#3.Tenaliram ki kahaniya : तेनालीराम की खामोशी



Tenaliram ki Kahaniya


महाराजा कृष्णदेवराय के दरबार में तेनालीराम अपनी हाजिरजवाबी और बुद्धिमानी के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी आदत थी कि वह किसी भी गंभीर चर्चा के बीच में कोई न कोई मज़ाकिया या चतुराई भरी टिप्पणी कर देते थे, जिससे माहौल हल्का हो जाता था। लेकिन एक दिन, जब दरबार में किसी पड़ोसी राज्य के साथ एक गंभीर संधि पर चर्चा चल रही थी, तेनालीराम ने बीच में ही एक चुटकुला सुना दिया।

इस बात पर महाराजा कृष्णदेवराय को बहुत क्रोध आया। उन्होंने भरी सभा में तेनालीराम को डाँटते हुए कहा, "तेनालीराम! तुम्हारी वाचालता (ज़्यादा बोलने की आदत) अब सीमा पार कर रही है। हर समय बोलना ज़रूरी नहीं होता। हम तुम्हें आदेश देते हैं कि आज से तुम इस दरबार में अपना मुँह नहीं खोलोगे। अगर तुमने एक शब्द भी बोला, तो तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा।"

तेनालीराम समझ गए कि राजा बहुत गुस्से में हैं। उन्होंने चुपचाप सिर झुकाकर राजा का आदेश स्वीकार कर लिया और अपनी जगह पर जाकर खामोश बैठ गए।

कुछ दिन बीत गए। तेनालीराम दरबार में रोज़ आते और एक मूर्ति की तरह चुपचाप बैठे रहते। दरबारियों को भी उनकी चुप्पी खलने लगी थी, क्योंकि उनके बिना दरबार बड़ा ही नीरस और उबाऊ लगता था।

एक दिन, उत्तर भारत के एक प्रसिद्ध और अहंकारी पंडित राजसभा में आए। उन्होंने महाराजा कृष्णदेवराय को चुनौती देते हुए कहा, "महाराज, मैंने सुना है कि आपके दरबार में एक से बढ़कर एक ज्ञानी और बुद्धिमान मंत्री हैं। मैं उन सब की परीक्षा लेना चाहता हूँ।"

पंडित ने अपनी हथेली आगे करते हुए पूछा, "क्या आपके दरबार में कोई ऐसा बुद्धिमान है, जो बता सके कि मेरी मुट्ठी में क्या है?"

यह एक अजीब सवाल था। मुट्ठी में तो कुछ भी हो सकता था। सभी मंत्री एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। किसी ने कहा, "सोने का सिक्का होगा," तो किसी ने कहा, "कोई कीमती रत्न होगा।" पंडित हर जवाब पर 'नहीं' में सिर हिलाते और दरबारियों का मज़ाक उड़ाते।

राजा का सिर चिंता और अपमान से झुकने लगा। उनकी नज़र कोने में चुपचाप बैठे तेनालीराम पर पड़ी। राजा को उनकी बुद्धिमानी की याद आई, लेकिन उन्हें अपना ही आदेश याद आ गया कि तेनालीराम कुछ बोल नहीं सकते।

राजा ने इशारे से तेनालीराम को आगे बुलाया। तेनालीराम आगे आए और पंडित के सामने खड़े हो गए। वह कुछ बोले नहीं, बस पंडित की मुट्ठी को ध्यान से देखते रहे। फिर तेनालीराम ने अपनी हथेली आगे की और पंडित को इशारा किया कि वह भी बताएं कि उनकी मुट्ठी में क्या है।

पंडित चकरा गए। उन्होंने सोचा, "यह तो उल्टा मुझ पर ही दांव खेल रहा है।" पंडित ने अनुमान लगाया, "तुम्हारी मुट्ठी में हवा है।" तेनालीराम ने 'नहीं' में सिर हिलाया। पंडित ने फिर कहा, "शायद रेत के कुछ कण हैं।" तेनालीराम ने फिर 'नहीं' में सिर हिला दिया।

अब पंडित की स्थिति हास्यास्पद हो गई थी। वह समझ नहीं पा रहे थे कि तेनालीराम की मुट्ठी में क्या हो सकता है।

अंत में, तेनालीराम ने अपनी मुट्ठी खोली, जिसमें कुछ भी नहीं था। फिर उन्होंने पंडित की ओर इशारा किया कि वह भी अपनी मुट्ठी खोलें। पंडित ने अपनी मुट्ठी खोली, जिसमें 'कुछ भी नहीं' था।

तेनालीराम ने मुस्कुराते हुए राजा की ओर देखा। राजा और सारे दरबारी तुरंत समझ गए। तेनालीराम ने बिना एक शब्द बोले यह बता दिया था कि पंडित की मुट्ठी में 'कुछ नहीं' है। उसने अपनी खामोशी और चतुराई भरे अभिनय से अहंकारी पंडित को उसी के खेल में हरा दिया था।

अहंकारी पंडित शर्मिंदा हो गया और उसने अपनी हार स्वीकार कर ली।

महाराजा कृष्णदेवराय अपनी जगह से उठे और तेनालीराम को गले लगा लिया। उन्होंने कहा, "तेनाली, आज तुम्हारी खामोशी तुम्हारे हज़ार शब्दों से भी ज़्यादा कीमती साबित हुई। तुमने बिना बोले ही विजयनगर का मान रख लिया। हम अपना आदेश वापस लेते हैं। इस दरबार को तुम्हारी बुद्धिमानी और तुम्हारी वाणी, दोनों की ज़रूरत है।"


सीख: ज्ञान और बुद्धिमानी दिखाने के लिए हमेशा शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी मौन रहकर भी बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है।

#4.Tenaliram ki kahaniya :आधा आम, आधा इनाम


Tenaliram ki Kahaniya

एक दिन महाराजा कृष्णदेवराय अपने शाही बगीचे में घूम रहे थे। उनकी नज़र आम के एक पेड़ पर लगे एक बहुत ही सुंदर और रसीले आम पर पड़ी। वह आम पेड़ की सबसे ऊँची टहनी पर लगा था और धूप में सोने की तरह चमक रहा था। राजा के मुँह में पानी आ गया और उन्होंने उस आम को खाने की इच्छा जताई।

राजा ने अपने पहरेदारों को आम तोड़ने का आदेश दिया, लेकिन वह इतनी ऊँचाई पर था कि कोई भी उस तक नहीं पहुँच पा रहा था। तब राजा को अपने सबसे बुद्धिमान मंत्री, तेनालीराम की याद आई। उन्होंने तुरंत तेनालीराम को बुलवाया।

राजा ने मुस्कुराते हुए कहा, "तेनालीराम, अगर तुम उस आम को हमारे लिए तोड़कर लाओ, तो हम तुम्हें मुँह माँगा इनाम देंगे।"

तेनालीराम ने सिर झुकाकर कहा, "जो आज्ञा महाराज!"

जब तेनालीराम आम तोड़ने के लिए उपाय सोच रहे थे, तो महल के दो लालची पहरेदार उनके पास आए। वे तेनालीराम से बहुत जलते थे। उनमें से एक ने कहा, "तेनालीराम, हमने सुना है कि राजा तुम्हें इस आम के लिए बड़ा इनाम देने वाले हैं। तुम्हें उस इनाम का आधा हिस्सा हमें देना होगा, वरना हम तुम्हें यह आम लेकर महल के अंदर जाने ही नहीं देंगे।"

तेनालीराम पहरेदारों की नीयत तुरंत समझ गए। उन्होंने मुस्कुराते हुए बड़ी शांति से कहा, "अवश्य! मुझे जो भी इनाम मिलेगा, मैं वादा करता हूँ कि उसका ठीक-ठीक आधा हिस्सा तुम दोनों को दूँगा।"

पहरेदार यह सुनकर बहुत खुश हुए और मन ही मन सोने के सिक्के गिनने लगे।

तेनालीराम ने अपनी चतुराई से कुछ पत्थरों का उपयोग करके उस आम को टहनी से नीचे गिरा लिया। लेकिन महल में राजा के पास जाने से पहले, वह एक तरफ रुके और उस रसीले आम का एक बड़ा टुकड़ा खा लिया।

अब वह आधा खाया हुआ (जूठा) आम लेकर राजा के दरबार में पहुँचे। राजा ने जैसे ही तेनालीराम के हाथ में जूठा आम देखा, उनका चेहरा क्रोध से लाल हो गया।

राजा गरजते हुए बोले, "तेनालीराम! तुम्हारी यह हिम्मत कैसे हुई? तुम हमें जूठा फल अर्पित कर रहे हो! यह हमारा घोर अपमान है। इस गुस्ताखी के लिए तुम्हें सज़ा मिलेगी!"

दरबार में सन्नाटा छा गया। तेनालीराम ने बड़ी विनम्रता से सिर झुकाया और कहा, "महाराज, आप जो भी सज़ा देंगे, वह मुझे स्वीकार है। लेकिन सज़ा देने से पहले कृपया मेरी एक विनती सुन लीजिए।"

राजा ने कहा, "बोलो!"

तेनालीराम बोले, "महाराज, मैंने महल के द्वार पर खड़े पहरेदारों से यह वादा किया था कि इस आम के बदले आपसे मुझे जो भी 'इनाम' मिलेगा, मैं उसका आधा हिस्सा उन्हें दूँगा। इसलिए, मैं अपनी इस गुस्ताखी के लिए आपसे 50 कोड़ों की सज़ा का 'इनाम' चाहता हूँ।"

यह सुनकर राजा एक पल के लिए चौंके। फिर तेनालीराम ने आगे कहा, "और महाराज, अपने वादे के अनुसार, इस इनाम का आधा हिस्सा, यानी 25 कोड़े, उन दोनों पहरेदारों को भी दिए जाएँ जो बाहर अपने इनाम का इंतज़ार कर रहे हैं।"

यह सुनते ही महाराजा कृष्णदेवराय ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। वह तेनालीराम की पूरी योजना समझ गए थे। उन्होंने तुरंत उन लालची पहरेदारों को दरबार में बुलवाया। जब पहरेदारों को अपनी सज़ा के बारे में पता चला, तो उन्होंने डर के मारे सारा सच उगल दिया।

राजा ने आदेश दिया कि दोनों पहरेदारों को 25-25 कोड़े लगाए जाएँ और उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाए। इसके बाद, वह तेनालीराम की ओर मुड़े और उनकी बुद्धिमानी की प्रशंसा करते हुए उन्हें सोने के सिक्कों से भरी एक थैली इनाम में दी।


सीख: लालच का फल हमेशा कड़वा होता है और सच्ची बुद्धिमानी किसी भी मुश्किल परिस्थिति को अपने पक्ष में मोड़ सकती है।

#5.Tenaliram ki kahaniya : सोने की मूर्ति का रहस्य

Tenaliram ki Kahaniya

विजयनगर राज्य में एक बहुत ही कुशल मूर्तिकार रहता था। वह गरीब था, लेकिन उसकी कला में जादू था। उसकी बनाई मूर्तियाँ इतनी जीवंत लगती थीं, मानो अभी बोल पड़ेंगी।

एक दिन, शहर के सबसे अमीर लेकिन लालची सेठ ने उस मूर्तिकार को बुलाया। सेठ ने उसे 10 किलो सोना देते हुए कहा, "तुम्हें इस सोने से भगवान श्री कृष्ण की एक बहुत ही सुंदर मूर्ति बनानी है। अगर मूर्ति मेरे मन को भा गई, तो मैं तुम्हें मज़दूरी में सोने के 100 सिक्के दूँगा।"

मूर्तिकार ने पूरी लगन और भक्ति-भाव से दिन-रात एक करके मूर्ति बनाना शुरू किया। महीनों की कड़ी मेहनत के बाद, उसने भगवान कृष्ण की एक अद्भुत, मनमोहक और अलौकिक मूर्ति तैयार की। मूर्ति को देखकर ऐसा लगता था, जैसे स्वयं भगवान कृष्ण उसके सामने खड़े मुस्कुरा रहे हों।

जब मूर्तिकार वह मूर्ति लेकर सेठ के पास पहुँचा, तो सेठ मूर्ति की सुंदरता देखकर दंग रह गया। लेकिन उसकी लालची नीयत जाग उठी। उसने मूर्तिकार को उसकी मज़दूरी न देने की एक कुटिल योजना बनाई।

सेठ ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा, "मूर्ति तो सुंदर है, लेकिन यह वज़न में हल्की लग रही है! मैंने तुम्हें 10 किलो सोना दिया था, लेकिन तुमने इसमें से कुछ सोना चोरी कर लिया है। तुम एक चोर हो!"

यह सुनकर मूर्तिकार के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसने रोते हुए अपनी ईमानदारी की बहुत दुहाई दी, लेकिन लालची सेठ ने उसकी एक न सुनी। मामला न्याय के लिए महाराजा कृष्णदेवराय के दरबार में पहुँचा।

दरबार में राजा और सभी मंत्री बड़ी दुविधा में पड़ गए। मूर्ति को पिघलाकर सोने का वज़न जाँचना संभव नहीं था, क्योंकि यह भगवान की मूर्ति थी और उसका अपमान नहीं किया जा सकता था। मूर्तिकार के पास अपनी बेगुनाही का कोई सबूत नहीं था और सेठ अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसे झूठा साबित करने पर तुला था।

जब कोई हल नहीं निकला, तो महाराजा ने अपनी आखिरी उम्मीद, तेनालीराम की ओर देखा।

तेनालीराम ने आगे बढ़कर मूर्ति को प्रणाम किया और उसे ध्यान से देखा। फिर वह मुस्कुराए और बोले, "महाराज, न्याय अवश्य होगा। इस सोने की मूर्ति में ही इसका रहस्य छिपा है। यह कोई साधारण मूर्ति नहीं, बल्कि एक चमत्कारी मूर्ति है।"

दरबार में बैठे सभी लोग हैरान हो गए। तेनालीराम ने आगे कहा, "इस मूर्ति में एक दिव्य शक्ति है। यह किसी भी झूठे व्यक्ति के स्पर्श मात्र से उसका भेद खोल देती है। जब कोई झूठा व्यक्ति इसे छूता है, तो यह मूर्ति गरमाने लगती है।"

यह सुनकर सेठ घबरा गया, लेकिन उसने अपनी घबराहट छिपाई।

तेनालीराम ने दो सेवकों को एक जैसा कपड़ा लाने का आदेश दिया। उन्होंने एक कपड़े से मूर्ति को अच्छी तरह ढक दिया और दूसरा कपड़ा सेठ के हाथ में देते हुए कहा, "सेठ जी, आप इस कपड़े से अपनी आँखें बंद कर लें। फिर आप आगे बढ़कर मूर्ति को स्पर्श करें और कसम खाएं कि मूर्तिकार ने सोना चुराया है। अगर आप सच्चे हुए, तो कुछ नहीं होगा। लेकिन अगर आप झूठे हुए, तो मूर्ति इतनी गरम हो जाएगी कि आपका हाथ जल जाएगा।"

अब सेठ बुरी तरह डर गया। उसे पता था कि वह झूठ बोल रहा है और उसे तेनालीराम की बात पर विश्वास होने लगा। उसे अपनी जान और इज़्ज़त दोनों खतरे में नज़र आने लगी।

जैसे ही सेठ ने आँखों पर पट्टी बाँधकर मूर्ति की ओर अपना हाथ बढ़ाया, उसका पूरा शरीर डर से काँपने लगा। मूर्ति को छूने से ठीक पहले, वह चीख पड़ा, "ठहरो! मुझे मत छुओ! मैं झूठा हूँ! महाराज, मुझे क्षमा कर दीजिए। इस मूर्तिकार ने कोई चोरी नहीं की है। मैं तो बस इसकी मज़दूरी के 100 सिक्के बचाना चाहता था।"

सेठ ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। तेनालीराम ने मूर्ति पर से कपड़ा हटाया और मुस्कुराए। मूर्ति में कोई चमत्कार नहीं था, यह तो बस तेनालीराम का एक मनोवैज्ञानिक दांव था, जिसने सेठ के मन में डर पैदा कर दिया और उससे सच उगलवा लिया।

महाराजा कृष्णदेवराय तेनालीराम की इस चतुराई से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने आदेश दिया कि लालची सेठ, मूर्तिकार को उसकी मज़दूरी के 100 सिक्कों के साथ-साथ हर्जाने के तौर पर 100 और सोने के सिक्के दे। साथ ही, दरबार में झूठ बोलने के अपराध में सेठ को एक महीने के लिए कारावास में डाल दिया गया।

मूर्तिकार को न्याय मिला और उसने तेनालीराम का बहुत आभार माना।


सीख: सच में बहुत ताकत होती है और उसे छिपाया नहीं जा सकता। बुद्धि और चतुराई से किसी भी झूठे इंसान का पर्दाफाश किया जा सकता है।

#6.Tenaliram ki kahaniya :हाथी कौन ले जाएगा?


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एक बार महाराजा कृष्णदेवराय, तेनालीराम की किसी बात पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने खुश होकर कहा, "तेनालीराम, आज हम तुम्हें एक ऐसा इनाम देंगे जिसे पूरा विजयनगर याद रखेगा।"

राजा ने अपने महावत को आदेश दिया कि शाही हाथियों में से सबसे सुंदर और विशाल हाथी तेनालीराम को तोहफ़े में दे दिया जाए।

यह एक बहुत बड़ा सम्मान था। तेनालीराम और उनका परिवार शाही हाथी को अपने घर के बाहर खड़ा देखकर बहुत खुश हुए। बच्चे हाथी के चारों ओर खुशी से नाचने लगे। लेकिन उनकी यह खुशी ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक सकी।

जल्द ही तेनालीराम को समझ आया कि शाही हाथी को पालना कोई बच्चों का खेल नहीं है। वह हाथी रोज़ाना कई किलो फल, गन्ना और पत्तियां खा जाता था। उसका पेट भरने के लिए तेनालीराम की पूरी तनख्वाह और जमा-पूँजी खर्च होने लगी। कुछ ही हफ्तों में हालत ऐसी हो गई कि तेनालीराम के अपने बच्चों के लिए घर में अनाज खत्म होने लगा, लेकिन हाथी का पेट भरना बंद नहीं हुआ।

तेनालीराम एक बड़ी दुविधा में फँस गए। वह राजा का दिया तोहफ़ा न तो बेच सकते थे और न ही उसे भूखा रख सकते थे, क्योंकि ऐसा करना राजा का अपमान होता।

काफी सोचने के बाद, तेनालीराम को एक तरकीब सूझी। अगले दिन, वह अपने हाथी को लेकर शहर के मुख्य बाज़ार में पहुँच गए। उन्होंने हाथी को सजाया और उसके गले में एक पट्टी टाँग दी, जिस पर लिखा था - "कीमत: सिर्फ एक रुपया!"

बाज़ार में जो भी यह देखता, हैरान रह जाता। एक रुपये में हाथी! यह खबर आग की तरह पूरे शहर में फैल गई। लोग भीड़ लगाकर हाथी देखने आने लगे। एक अमीर व्यापारी ने आगे बढ़कर कहा, "मैं इस हाथी को एक रुपये में खरीदने के लिए तैयार हूँ।"

तेनालीराम ने मुस्कुराते हुए कहा, "ज़रूर, लेकिन मेरी एक शर्त है।"

व्यापारी ने पूछा, "कैसी शर्त?"

तेनालीराम ने अपनी गोद में बैठी एक मरियल-सी बिल्ली को दिखाते हुए कहा, "शर्त यह है कि आपको इस हाथी के साथ मेरी यह बिल्ली भी खरीदनी पड़ेगी। हाथी की कीमत एक रुपया है और इस बिल्ली की कीमत है दस हज़ार सोने की मोहरें। और मैं दोनों को एक साथ ही बेचूँगा।"

यह सुनकर व्यापारी और वहाँ खड़ी भीड़ ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। सबने कहा, "तेनालीराम पागल हो गए हैं! एक रुपये के हाथी के लिए दस हज़ार सोने की मोहरें कौन देगा?" लोग उनका मज़ाक उड़ाकर चले गए।

यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। तेनालीराम रोज़ बाज़ार आते और अपनी वही शर्त दोहराते। जल्द ही यह बात राजा कृष्णदेवराय के कानों तक पहुँच गई। दरबारियों ने राजा को भड़काते हुए कहा, "महाराज, तेनालीराम आपके दिए शाही तोहफ़े का अपमान कर रहा है। वह उसे एक रुपये में बेचने का नाटक करके आपकी खिल्ली उड़ा रहा है।"

राजा को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने तुरंत तेनालीराम को दरबार में हाज़िर होने का आदेश दिया।

राजा ने क्रोध में पूछा, "तेनालीराम! तुम्हारी यह हिम्मत कैसे हुई कि तुम हमारे दिए गए उपहार का ऐसा अपमान करो? क्या है यह एक रुपये का हाथी और दस हज़ार की बिल्ली का तमाशा?"

तेनालीराम ने बड़ी शांति से सिर झुकाकर उत्तर दिया, "महाराज, क्षमा करें। मैं आपके तोहफ़े का अपमान कैसे कर सकता हूँ? मैं तो अपनी बिल्ली बेचना चाहता हूँ, लेकिन कोई उसे खरीदने को तैयार ही नहीं है।"

राजा ने हैरानी से पूछा, "क्यों? ऐसा क्यों?"

तेनालीराम ने कहा, "महाराज, मैं अपनी बिल्ली दस हज़ार सोने की मोहरों में बेच रहा हूँ और उसके साथ आपका दिया यह शाही हाथी मुफ्त में दे रहा हूँ। पर कोई भी व्यक्ति मेरी बिल्ली इसलिए नहीं खरीद रहा, क्योंकि उसे मुफ्त में यह हाथी मिल जाएगा। इस हाथी को पालने का खर्च इतना ज़्यादा है कि कोई इसे मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं। अब आप ही बताइए महाराज, इस हाथी को कौन ले जाएगा?"

यह सुनते ही राजा को अपनी गलती का एहसास हो गया। वह समझ गए कि उन्होंने तोहफ़े के रूप में तेनालीराम को एक सम्मान नहीं, बल्कि एक बहुत बड़ा बोझ दे दिया था। तेनालीराम की चतुराई भरी शिकायत सुनकर राजा का सारा गुस्सा हँसी में बदल गया।

उन्होंने तेनालीराम से हाथी वापस ले लिया और शाही खजाने में उसे रखने का आदेश दिया। तेनालीराम के हुए नुकसान की भरपाई के लिए और उनकी बुद्धिमानी से प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें सोने के सिक्कों से भरी एक थैली इनाम में दी।


सीख: कोई भी उपहार या तोहफ़ा ऐसा होना चाहिए जो पाने वाले के लिए खुशी लाए, बोझ नहीं। और बुद्धिमानी से बिना किसी का अपमान किए भी अपनी बात रखी जा सकती है।

#7.Tenaliram ki kahaniya :बुद्धिमान दान


Tenaliram ki Kahaniya


विजयनगर में एक बहुत ही अमीर लेकिन महा कंजूस सेठ रहता था। वह धनवान तो था, लेकिन दान-पुण्य के नाम पर एक कौड़ी भी खर्च नहीं करना चाहता था। फिर भी, वह समाज में एक बड़े दानवीर के रूप में प्रसिद्ध होना चाहता था।

एक दिन, उसने अपने गुरु से पूछा, "गुरुजी, कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे कम से Eकम खर्च में ज़्यादा से ज़्यादा पुण्य कमाया जा सके।"

गुरु ने उसे एक कुटिल उपाय सुझाया। उन्होंने कहा, "शास्त्रों में 'गौ-दान' को महादान कहा गया है। तुम किसी गरीब ब्राह्मण को एक गाय दान कर दो। इससे तुम्हें पुण्य भी मिलेगा और समाज में तुम्हारा नाम भी होगा। और रही खर्च की बात, तो अगले ही दिन उस ब्राह्मण के घर जाकर वही गाय उससे 'उधार' के तौर पर वापस माँग लेना।"

कंजूस सेठ को यह उपाय बहुत पसंद आया। उसने शहर के सबसे गरीब ब्राह्मण को बुलाया और बड़े गाजे-बाजे के साथ, सबके सामने उसे अपनी एक बूढ़ी गाय 'दान' में दे दी। बेचारा ब्राह्मण बहुत खुश हुआ और सेठ को लाखों दुआएँ देता हुआ गाय लेकर चला गया।

लेकिन उसकी खुशी ज़्यादा देर तक नहीं टिक सकी। अगली ही सुबह, सेठ अपने कुछ आदमियों के साथ ब्राह्मण की झोपड़ी में पहुँच गया और बोला, "पंडित जी, मुझे अपनी गाय तुरंत वापस चाहिए। मान लीजिए कि मैंने आपको यह उधार दी थी।"

गरीब ब्राह्मण ने बहुत मिन्नतें कीं, लेकिन सेठ ने उसकी एक न सुनी और जबरदस्ती गाय को हाँककर ले गया। दुखी और ठगा हुआ महसूस कर रहा ब्राह्मण न्याय की आस में महाराजा कृष्णदेवराय के दरबार में पहुँचा और अपनी सारी व्यथा सुनाई।

दरबार में जब सेठ को बुलाया गया, तो उसने बड़ी चतुराई से कहा, "महाराज, मैंने तो अपना धर्म निभाया और गाय दान कर दी। दान की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी। अगले दिन वह गाय ब्राह्मण की हो चुकी थी, तो मैंने उससे उसकी गाय बस कुछ दिनों के लिए उधार माँगी। इसमें मैंने क्या गलत किया?"

सेठ के कुतर्क के आगे सभी मंत्री निरुत्तर हो गए। तब महाराजा ने तेनालीराम की ओर देखा।

तेनालीराम ने कहा, "महाराज, न्याय होगा। लेकिन इसके लिए मुझे दो दिन का समय चाहिए।"

अगले दिन, तेनालीराम उस कंजूस सेठ के घर पहुँचे और उसे बड़े आदर से बोले, "सेठ जी, मैंने महाराज की लंबी उम्र के लिए अपने घर पर एक विशेष पूजा रखी है। मैं चाहता हूँ कि नगर के सबसे बड़े दानवीर होने के नाते आप उस पूजा में मुख्य अतिथि बनें।"

अपनी प्रशंसा सुनकर और मुफ्त का भोजन मिलने की उम्मीद में सेठ तुरंत तैयार हो गया। जब सेठ, तेनालीराम के घर पहुँचा, तो तेनालीराम ने उसकी खूब आवभगत की। पूजा के बीच में, तेनालीराम एक लोहे की गर्म सलाख लेकर आए।

इससे पहले कि सेठ कुछ समझ पाता, तेनालीराम ने वह गर्म सलाख सेठ की पीठ पर हल्के से छुआ दी। सेठ दर्द से चीख पड़ा और गुस्से में वहाँ से भाग गया।

अगले दिन सेठ भरी सभा में राजा के सामने पेश हुआ और अपनी पीठ दिखाते हुए बोला, "महाराज! देखिए! आपके मंत्री तेनालीराम ने मुझे पूजा के बहाने घर बुलाकर मेरी पीठ जला दी! मुझे न्याय चाहिए!"

राजा ने गुस्से से तेनालीराम की ओर देखा।

तेनालीराम ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, "महाराज, सेठ जी झूठ बोल रहे हैं। मैं तो एक गरीब आदमी हूँ, मेरे पास दान करने के लिए सोना-चाँदी तो है नहीं। इसलिए, आपकी लंबी उम्र की कामना के लिए मैंने अपनी पीठ की थोड़ी-सी चमड़ी अग्नि को 'दान' करने का निश्चय किया।"

उन्होंने आगे कहा, "जैसे ही मैंने अपनी चमड़ी का वह टुकड़ा सेठ जी को साक्षी मानकर अग्नि को दान किया, मुझे एहसास हुआ कि बिना चमड़ी के तो मुझे बहुत दर्द होगा। इसलिए, मैंने सेठ जी के 'बुद्धिमान दान' वाले तरीके से ही अपना दान तुरंत वापस ले लिया। मैंने तो बस सेठ जी से ही प्रेरणा ली है।"

यह सुनते ही पूरा दरबार ठहाके लगाकर हँस पड़ा। कंजूस सेठ का चेहरा शर्म से लाल हो गया। वह समझ गया कि तेनालीराम ने उसी के तर्क से उसे मात दे दी है।

महाराजा कृष्णदेवराय ने सेठ को आदेश दिया कि वह तुरंत ब्राह्मण को उसकी गाय लौटाए और अपनी धूर्तता के लिए जुर्माने के तौर पर 100 सोने की मोहरें भी दे।

सीख: दान वही होता है जो बिना किसी स्वार्थ और वापसी की उम्मीद के दिया जाए। जो दान किसी लालच या दिखावे के लिए किया जाता है, वह पुण्य नहीं, बल्कि पाप का भागीदार बनाता है।

#8.Tenaliram ki kahaniya :बोलने वाली मुर्गी

Tenaliram ki Kahaniya


एक बार विजयनगर राज्य में एक विदेशी जादूगर आया। उसने पूरे शहर में यह घोषणा करवा दी कि उसके पास एक जादुई मुर्गी है जो न सिर्फ इंसानों की तरह बात कर सकती है, बल्कि भविष्य भी बता सकती है।

यह खबर महाराजा कृष्णदेवराय तक भी पहुँची। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने उस जादूगर को अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए राज दरबार में आमंत्रित किया।

निश्चित दिन पर, जादूगर अपनी मुर्गी के साथ दरबार में हाज़िर हुआ। उसने मुर्गी को एक मेज पर रखा और राजा से कहा, "महाराज, आप इस दिव्य मुर्गी से कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं। यह अपनी भाषा में उत्तर देगी, जिसका अनुवाद मैं आपको करके बताऊँगा।"

राजा ने पूछा, "हे दिव्य मुर्गी, बताओ कि इस वर्ष हमारे राज्य में वर्षा कैसी होगी?"

जादूगर ने यही सवाल अपनी भाषा में मुर्गी से पूछा। मुर्गी ने दो-तीन बार 'कुड़-कुड़' की आवाज़ निकाली।

जादूगर तुरंत बोल पड़ा, "महाराज! मुर्गी कह रही है कि इस वर्ष वर्षा बहुत अच्छी होगी और फसलें लहलहाएँगी, लेकिन इसके लिए आपको देवी माँ के मंदिर में 1000 सोने की मोहरें चढ़ानी होंगी।"

इसके बाद, एक मंत्री ने पूछा, "क्या पड़ोसी राज्य से हमारी संधि सफल होगी?"

मुर्गी ने फिर से 'कुड़-कुड़' किया। जादूगर ने अनुवाद किया, "हाँ, संधि सफल होगी, पर इसके लिए आपको मुझे एक गाय और सौ स्वर्ण मुद्राएँ दान में देनी होंगी।"

इस तरह, जादूगर हर सवाल का जवाब देता और अपने लिए किसी न किसी इनाम की घोषणा कर देता। राजा और सारे दरबारी इस चमत्कार को देखकर दंग रह गए। वे उस जादूगर को बहुत बड़ा सिद्ध पुरुष मानने लगे।

लेकिन तेनालीराम, जो चुपचाप यह सब देख रहे थे, उन्हें इस पर बिल्कुल विश्वास नहीं हुआ। वह समझ गए कि यह कोई जादू नहीं, बल्कि हाथ की सफाई या कोई धोखा है।

जब राजा उस जादूगर को एक बड़ी जागीर इनाम में देने ही वाले थे, तब तेनालीराम अपनी जगह से उठे और बोले, "महाराज, यह तो सच में एक अद्भुत और चमत्कारी मुर्गी है। इसकी भाषा बहुत ही दिव्य है।"

फिर वह जादूगर की ओर मुड़कर बोले, "हे महानुभाव! आपकी मुर्गी की भाषा इतनी गूढ़ है कि मुझे डर है कहीं आपके अनुवाद में कोई गलती न हो जाए। मेरे पास एक विशेष पालतू बिल्ली है, जिसे पक्षियों की भाषा का पूरा ज्ञान है। अगर आप आज्ञा दें, तो मैं उसे यहाँ लाना चाहूँगा ताकि वह भी पुष्टि कर दे कि मुर्गी सच बोल रही है।"

राजा को यह विचार बड़ा रोचक लगा और उन्होंने अनुमति दे दी। जादूगर अब थोड़ा घबरा गया, लेकिन वह कुछ बोल नहीं सका।

तेनालीराम दरबार से बाहर गए और एक बड़ी, भूखी-सी बिल्ली लेकर अंदर आए। उन्होंने बिल्ली को उसी मेज पर मुर्गी से थोड़ी दूर बैठा दिया।

तेनालीराम ने बिल्ली के सामने हाथ जोड़कर कहा, "हे पक्षी-भाषा की ज्ञाता! कृपया सुनें कि यह दिव्य मुर्गी क्या कह रही है और हमें बताएं कि यह सत्य है या नहीं।"

जादूगर की हालत खराब हो गई। उसे मुर्गी से कुछ बुलवाना ही था। जैसे ही उसने इशारा किया और मुर्गी ने 'कुड़-कुड़' की आवाज़ निकाली, भूखी बिल्ली अपनी शिकार को सामने देखकर तुरंत उस पर झपट पड़ी।

फिर क्या था! दिव्य मुर्गी अपनी जान बचाने के लिए बदहवास होकर पूरे दरबार में दौड़ने लगी और बिल्ली उसके पीछे-पीछे भागने लगी। मुर्गी की 'कुड़-कुड़' की दिव्य वाणी अब डर भरी 'काँ-काँ' में बदल चुकी थी। जादूगर अपनी कीमती मुर्गी को बचाने के लिए उनके पीछे भागा। पूरा दरबार एक तमाशा बन गया।

तेनालीराम ने शांत भाव से महाराजा से कहा, "महाराज, क्षमा करें। लगता है मेरी बिल्ली ने इस ढोंगी का रहस्य खोल दिया है। यह कोई बोलने वाली मुर्गी नहीं, बल्कि एक साधारण मुर्गी है जो बिल्ली को देखकर किसी भी आम मुर्गी की तरह डर गई। यह जादूगर कोई सिद्ध पुरुष नहीं, बल्कि एक बहुरूपिया है जो अपनी चालाकी से आपको ठग रहा था।"

राजा कृष्णदेवराय को अपनी गलती का एहसास हो गया। उन्होंने तुरंत उस धोखेबाज़ जादूगर को बंदी बनाने का आदेश दिया। जादूगर ने अपना अपराध स्वीकार कर लिया और राजा से माफ़ी माँगी।

राजा ने तेनालीराम की बुद्धिमानी की बहुत प्रशंसा की और कहा, "तेनाली, आज तुमने एक बार फिर साबित कर दिया कि अंधविश्वास पर तर्क और बुद्धि की हमेशा जीत होती है।"


सीख: हमें कभी भी सुनी-सुनाई बातों या चमत्कारों पर आँख बंद करके विश्वास नहीं करना चाहिए। हर चीज़ को तर्क की कसौटी पर परखना ज़रूरी है।

#9.Tenaliram ki kahaniya :सबसे बड़ा मूर्ख कौन?


Tenaliram ki Kahaniya

एक शाम, महाराजा कृष्णदेवराय बहुत ही हल्के-फुल्के मूड में थे। उन्होंने अपने प्रिय मंत्री तेनालीराम को बुलाया और मुस्कुराते हुए एक अजीब आदेश दिया, "तेनालीराम, हम चाहते हैं कि तुम हमारे इस विशाल राज्य में से चार सबसे बड़े मूर्खों को ढूंढकर एक महीने के अंदर हमारे सामने पेश करो।"

यह सुनकर सभी दरबारी हैरान रह गए, लेकिन तेनालीराम ने शांत भाव से राजा का आदेश स्वीकार कर लिया और मूर्खों की खोज में निकल पड़े।

तेनालीराम कई हफ्तों तक राज्य के विभिन्न नगरों और गाँवों में घूमते रहे। इस दौरान उन्हें कई तरह के लोग मिले।

एक दिन, उन्होंने एक आदमी को देखा जो एक घोड़े पर बैठा था, लेकिन अपने सिर पर लकड़ियों का एक भारी गट्ठर उठाए हुए था। तेनालीराम ने उससे पूछा, "भले आदमी, जब तुम घोड़े पर बैठे ही हो, तो इस गट्ठर को भी घोड़े पर ही क्यों नहीं रख लेते?" उस आदमी ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, "अरे महाशय, यह घोड़ा पहले से ही मेरा बोझ उठाकर थक गया है। मैं इस पर लकड़ियों का बोझ डालकर इसे और परेशान नहीं करना चाहता। इसीलिए मैंने यह गट्ठर अपने सिर पर रखा है।" तेनालीराम ने मुस्कुराते हुए उसका नाम और पता लिख लिया।

कुछ दिन बाद, रात के समय उन्होंने एक और आदमी को देखा जो सड़क पर एक लालटेन के ठीक नीचे कुछ ढूंढ रहा था। तेनालीराम ने पूछा, "क्या खो गया है तुम्हारा?" आदमी बोला, "मेरी सोने की अंगूठी गिर गई है।" तेनालीराम ने पूछा, "कहाँ गिरी थी?" उस आदमी ने दूर एक अंधेरी गली की ओर इशारा करते हुए कहा, "गिरी तो उस गली में थी।" तेनालीराम ने हैरानी से कहा, "तो फिर तुम यहाँ लालटेन के नीचे क्यों ढूंढ रहे हो?" आदमी ने जवाब दिया, "क्योंकि यहाँ रौशनी है!" तेनालीराम ने उस दूसरे मूर्ख का भी नाम-पता लिख लिया।

एक महीने की समय-सीमा समाप्त होने पर तेनालीराम दरबार में हाज़िर हुए।

महाराजा ने उत्सुकता से पूछा, "क्यों तेनालीराम? क्या तुम राज्य के चार सबसे बड़े मूर्खों को ले आए?"

तेनालीराम ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मुझे केवल दो ही महा-मूर्ख मिले हैं। मैं उन्हें पेश तो नहीं कर सका, लेकिन मेरे पास उनके नाम और पते हैं।"

राजा क्रोधित हो गए। "क्या? इतने बड़े राज्य में तुम्हें सिर्फ दो मूर्ख मिले? और बाकी के दो कहाँ हैं? यह तुम्हारा आलस्य है!"

तेनालीराम ने बड़ी विनम्रता से कहा, "महाराज, बाकी के दो मूर्ख भी यहीं, इसी दरबार में मौजूद हैं।"

यह सुनकर पूरी सभा में सन्नाटा छा गया। राजा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। "तुम्हारी यह हिम्मत कैसे हुई, तेनालीराम? क्या तुम हमारे काबिल दरबारियों को मूर्ख कह रहे हो? साफ़-साफ़ बताओ!"

तेनालीराम ने कहा, "महाराज, क्षमा करें, पर तीसरा सबसे बड़ा मूर्ख मैं स्वयं हूँ।"

"तुम?" राजा ने हैरानी से पूछा।

"जी महाराज," तेनालीराम बोले, "क्योंकि मैंने राज-काज के सारे ज़रूरी काम छोड़कर अपना कीमती एक महीना ऐसे मूर्ख लोगों को खोजने में बर्बाद कर दिया, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं था।"

इससे पहले कि राजा कुछ और कहते, तेनालीराम ने आगे कहा, "और महाराज, अगर आप क्षमा करें, तो चौथा सबसे बड़ा मूर्ख वह व्यक्ति है, जो अपने राज्य के सबसे बुद्धिमान मंत्री को शासन चलाने जैसे महत्वपूर्ण काम से हटाकर ऐसे मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ काम पर लगाता है।"

यह सुनते ही राजा कृष्णदेवराय सन्न रह गए। उनका सारा क्रोध एक पल में गायब हो गया। उन्हें तेनालीराम की बात की गहराई समझ में आ गई। तेनालीराम ने बड़ी ही चतुराई से उन्हें यह सबक सिखाया था कि एक राजा को अपना और अपने मंत्रियों का समय राज्य की भलाई के कामों में लगाना चाहिए, न कि ऐसी बचकानी इच्छाओं को पूरा करने में।

राजा अपनी मूर्खता पर मुस्कुराए और ज़ोर से हँस पड़े। उन्होंने तेनालीराम को उनकी इस अनोखी सीख और साहस के लिए ढेर सारा इनाम दिया और भविष्य में ऐसे व्यर्थ के कामों में समय बर्बाद न करने का वचन दिया।


सीख: सबसे बड़ी बुद्धिमानी अपनी मूर्खता को पहचानने में है। एक शासक का समय और राज्य के संसाधन प्रजा के कल्याण के लिए होते हैं, व्यक्तिगत मनोरंजन के लिए नहीं।

#10.Tenaliram ki kahaniya :बारिश में दंड


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एक बार, दरबार में किसी गंभीर चर्चा के दौरान तेनालीराम ने एक ऐसा व्यंग्य कर दिया कि महाराजा कृष्णदेवराय क्रोध से आग-बबूला हो गए। उस दिन राजा का मिजाज पहले से ही खराब था और तेनालीराम की टिप्पणी ने जले पर नमक का काम किया।

राजा ने गरजते हुए कहा, "तेनालीराम! तुम्हारी जुबान बहुत लंबी हो गई है। तुम्हें अपनी धृष्टता का दंड अवश्य मिलेगा।"

संयोग से उस समय सावन का महीना था और बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। राजा ने सैनिकों को आदेश दिया, "इस तेनालीराम को ले जाओ और रात भर महल के मुख्य द्वार के सामने खड़ा कर दो। इसे इस तूफानी बारिश में भीगने दो, ताकि इसका दिमाग ठंडा हो और इसे अपनी गलती का एहसास हो।"

राजा का आदेश सुनकर तेनालीराम चुप रहे। दो सैनिक उन्हें पकड़कर महल के बाहर ले आए और तेज बारिश में खड़ा कर दिया। बारिश की मोटी-मोटी बूँदें और ठंडी हवा तेनालीराम के साथ-साथ उन दोनों सैनिकों को भी कंपा रही थी।

कुछ घंटे बीतने के बाद, सैनिक ठंड से बुरी तरह काँपने लगे। उनमें से एक ने कहा, "तेनालीराम जी, हमें तो लगता है कि इस ठंड में हम सुबह तक बीमार पड़ जाएँगे।"

तेनालीराम ने मुस्कुराते हुए कहा, "भाइयों, राजा का आदेश तो मानना ही पड़ेगा। पर मेरे पास एक तरकीब है जिससे तुम दोनों की वफादारी भी साबित हो जाएगी और हमें ठंड से थोड़ी राहत भी मिल जाएगी।"

सैनिकों ने उत्सुकता से पूछा, "कैसी तरकीब?"

तेनालीराम ने फुसफुसाते हुए कहा, "देखो, राजा हमें अपने कक्ष की खिड़की से देख रहे होंगे। वे यह परखना चाहते हैं कि उनके सैनिक कितने वफादार हैं। तुम दोनों ठीक इस खुले आसमान के नीचे खड़े रहो, ताकि राजा को लगे कि तुम उनके आदेश का पूरी निष्ठा से पालन कर रहे हो। मैं बूढ़ा आदमी हूँ, इतनी ठंड नहीं सह सकता, इसलिए मैं दीवार की इस ओट में खड़ा हो जाता हूँ। यहाँ बारिश की सीधी बूँदें नहीं पड़ रही हैं। दूर से देखने पर राजा को यही लगेगा कि हम तीनों बारिश में ही खड़े हैं।"

सैनिकों को यह विचार बहुत पसंद आया। वे राजा को प्रभावित करने के लिए छाती चौड़ी करके सीधे बारिश में खड़े हो गए और तेनालीराम दीवार के छज्जे के नीचे लगभग सूखे खड़े रहे।

अगली सुबह, सैनिक काँपते हुए तेनालीराम को लेकर दरबार में पहुँचे। राजा ने तेनालीराम को ऊपर से नीचे तक देखा और व्यंग्य से पूछा, "क्यों तेनाली? रात की बारिश कैसी लगी? उम्मीद है तुम्हें अपनी गलती का सबक मिल गया होगा।"

तेनालीराम ने हाथ जोड़कर कहा, "महाराज, आपकी जय हो! दंड तो बहुत कठोर था, लेकिन मैं आपके इन दोनों सैनिकों की स्वामी-भक्ति देखकर नतमस्तक हूँ। ये दोनों असली योद्धा हैं!"

राजा ने प्रसन्न होकर पूछा, "ऐसा क्यों कह रहे हो?"

तेनालीराम बोले, "महाराज, रात भर जब मूसलाधार बारिश हो रही थी, तब मैं तो अपनी वृद्धावस्था के कारण कभी-कभी दीवार की ओट में छिप जाता था, लेकिन आपके ये दोनों वीर सैनिक एक इंच भी अपनी जगह से नहीं हिले! वे सारी रात सीधे बारिश की बूँदों के नीचे खड़े रहकर आपके आदेश का मान बढ़ाते रहे।"

यह सुनकर राजा बहुत खुश हुए। उन्होंने सैनिकों की ओर देखकर कहा, "सैनिकों! क्या यह सत्य है?"

इनाम की उम्मीद में दोनों सैनिकों ने तुरंत हाँ में सिर हिलाया और कहा, "जी महाराज! हम आपके आदेश के लिए अपनी जान भी दे सकते हैं।"

तब तेनालीराम ने अपनी असली चाल चली। उन्होंने कहा, "महाराज, इसका अर्थ तो यह हुआ कि जो दंड आपने मेरे लिए तय किया था, उसे असल में इन दोनों वफादार सैनिकों ने भोगा है। अब चूँकि इन्होंने मेरी जगह पर दंड भुगत लिया है, तो मैं अपने दंड से मुक्त हुआ।"

यह सुनते ही राजा कृष्णदेवराय पहले तो चौंके, फिर तेनालीराम की चतुराई समझकर ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। दोनों सैनिकों को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और उनका सिर शर्म से झुक गया।

राजा ने तेनालीराम को माफ कर दिया और कहा, "तेनालीराम, तुम्हें दंड देना असंभव है। तुम्हारी बुद्धि हर सज़ा का तोड़ निकाल ही लेती है।"


सीख: बुद्धि और चतुराई से किसी भी कठिन परिस्थिति या दंड से बाहर निकलने का रास्ता खोजा जा सकता है। क्रोध में दिया गया निर्णय अक्सर निष्प्रभावी हो जाता है।


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